- क्रांतिसूर्य टंट्या भील विश्वविद्यालय, खरगोन में “भारतीय शोध पद्धति की अवधारणा” विषय पर एक दिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला संपन्न

खरगोन/इंदौर| क्रांतिसूर्य टंट्या भील विश्वविद्यालय, खरगोन में “भारतीय शोध पद्धति की अवधारणा” विषय पर एक दिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला संपन्न हुई। इस कार्यशाला में मुख्य वक्ता के रूप में देवी अहिल्या विश्वविद्यालय इंदौर के कार्य परिषद सदस्य एवं वरिष्ठ होम्योपैथिक चिकित्सक डॉ. ए.के. द्विवेदी (इंदौर) उपस्थित रहे।
डॉ. द्विवेदी ने भारतीय शोध पद्धति की विशेषताओं पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए कहा कि भारतीय शोध परंपरा की नींव आध्यात्मिकता, दर्शन और प्रायोगिकता – इन तीनों पर एक साथ टिकी है। भारत में शोध का अर्थ केवल आँकड़ों या प्रयोगों तक सीमित नहीं रहा है, बल्कि वह सत्य की खोज और अंतःकरण की शुद्धि से जुड़ा रहा है। चरक-सुश्रुत संहिताओं से लेकर पाणिनि, आर्यभट और भास्कराचार्य तक की परंपरा ने यह सिद्ध किया है कि भारतीय शोध का उद्देश्य सदैव मानव कल्याण का रहा है, न कि केवल बौद्धिक प्रदर्शन का।
डॉ. द्विवेदी ने पश्चिमी और भारतीय शोध पद्धतियों का अंतर स्पष्ट करते हुए कहा कि जहाँ पश्चिमी पद्धति वस्तुनिष्ठता और पुनरावृत्ति पर आधारित है, वहीं भारतीय दृष्टि समग्र दृष्टिकोण और अनुभवात्मक पुष्टि को महत्व देती है
आधुनिक परिप्रेक्ष्य में उन्होंने कहा कि आज का शोध यदि नैतिकता, संवेदना और संस्कृति से जुड़ा न हो, तो वह अधूरा है। ज्ञान तभी सार्थक है जब वह समाज के लिए उपयोगी हो।

आयुष चिकित्सा और होम्योपैथी से जुड़े अपने अनुभव साझा करते हुए डॉ. द्विवेदी ने कहा कि भारतीय चिकित्सा पद्धति में शोध का केंद्र “रोग” नहीं, बल्कि “रोगी” होता है, और यही भारतीय दृष्टि की मौलिकता है।
कार्यक्रम में विशेष रूप से “शिक्षा से आत्मनिर्भर भारत” के राष्ट्रीय संयोजक श्री ओमप्रकाश शर्मा ने भी अपने विचार व्यक्त किए। कार्यशाला की अध्यक्षता कुलगुरु डॉ. एम.एल. कोरी ने की, जबकि कुलसचिव डॉ. एम.डी. सोमानी, डॉ. जितेन्द्र शर्मा और डॉ. आशीष जनक राय दवे भी कार्यशाला में बतौर वक्ता शामिल रहे।

